नगर पालिकाओं के चेयरमैन को हटाने की प्रक्रिया, जानिए क्या कहता है उत्तराखंड का कानून
– अज़हर मलिक
उत्तराखंड में नगर निकाय चुनावों के बाद अक्सर यह सवाल उठता है कि एक बार चुनाव जीतकर चेयरमैन की कुर्सी पर बैठने वाला व्यक्ति क्या पूरे कार्यकाल तक अपदस्थ नहीं किया जा सकता? लेकिन सच्चाई यह है कि राज्य के नगर पालिका अधिनियम के तहत कुछ खास परिस्थितियों में निर्वाचित चेयरमैन को पद से हटाया जा सकता है। हालांकि ऐसे उदाहरण प्रदेश में अब तक बेहद कम देखने को मिले हैं, लेकिन कानून स्पष्ट रूप से इसकी अनुमति देता है।
राज्य में नगर पालिका अधिनियम, 1916 के तहत यह व्यवस्था की गई है कि यदि नगर पालिका के कुल सदस्यों में से दो-तिहाई पार्षद किसी निर्वाचित चेयरमैन के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाते हैं और वह बहुमत से पारित हो जाता है, तो उस चेयरमैन को अपना पद छोड़ना पड़ सकता है। यह प्रक्रिया पूरी तरह लोकतांत्रिक है और इसके लिए तय समय, नोटिस और मतगणना की स्पष्ट प्रक्रिया अपनाई जाती है।
इसके अलावा, यदि कोई चेयरमैन चुनाव के समय फर्जी प्रमाणपत्र लगाकर मैदान में उतरा हो या चुनाव खर्च का सही ब्यौरा न दिया हो, या फिर किसी आपराधिक मामले में दोषी साबित हो गया हो, तो उसे भी पद से अयोग्य घोषित किया जा सकता है। ऐसे मामलों में राज्य निर्वाचन आयोग की भूमिका महत्वपूर्ण होती है, जो जांच रिपोर्ट और कानूनी प्रक्रिया के आधार पर अध्यक्ष की सदस्यता रद्द कर सकता है।
कई बार हालात ऐसे भी बनते हैं जब अध्यक्ष स्वयं त्यागपत्र दे देते हैं। यह त्यागपत्र कार्यपालक अधिकारी के माध्यम से सरकार को भेजा जाता है और उसकी स्वीकृति के बाद पद रिक्त माना जाता है। वहीं, यदि किसी मतदाता या प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवार ने चुनाव को अदालत में चुनौती दी हो और न्यायालय ने चुनाव को अमान्य करार दिया हो, तो ऐसे में भी चेयरमैन की कुर्सी उनसे छिन सकती है।
प्रदेश में हालांकि ऐसे मामलों की संख्या बहुत कम है, लेकिन इन प्रावधानों की मौजूदगी यह सुनिश्चित करती है कि कोई भी निर्वाचित जनप्रतिनिधि कानून से ऊपर नहीं है। पारदर्शिता, जवाबदेही और जनहित के मूल सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए, यह प्रक्रिया लोकतंत्र को और मजबूत करती है।