विधायक की सिफारिश का आरोप निराधार, ट्रिब्युनल ने कांस्टेबल को दी राहत, SSP और IG के आदेश रद्द

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विधायक की सिफारिश का आरोप निराधार, ट्रिब्युनल ने कांस्टेबल को दी राहत, SSP और IG के आदेश रद्द

अज़हर मलिक 

काशीपुर : उत्तराखंड में पुलिस विभाग की कार्यशैली पर एक बार फिर सवाल खड़ा हो गया है। नैनीताल स्थित उत्तराखंड लोक सेवा अधिकरण (ट्रिब्युनल) की पीठ ने एक पुलिस कांस्टेबल के विरुद्ध SSP उधमसिंह नगर और IG कुमाऊं द्वारा पारित दंड आदेश को निरस्त कर दिया है। ट्रिब्युनल ने स्पष्ट किया कि जिस तथाकथित स्थानांतरण सिफारिश पत्र के आधार पर कार्रवाई की गई, वह स्वयं भ्रम का विषय था क्योंकि कांस्टेबल पहले से ही उस स्थान पर नियुक्त था।

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मामला पुलिस कांस्टेबल दिनेश कुमार से जुड़ा है, जो वर्तमान में जनपद चंपावत में तैनात हैं। अधिवक्ता नदीम उद्दीन एडवोकेट के माध्यम से उन्होंने ट्रिब्युनल की नैनीताल पीठ में याचिका दायर की थी, जिसमें कहा गया था कि वर्ष 2021 में विधायक डॉ. प्रेम सिंह राणा का एक स्थानांतरण अनुशंसा पत्र वायरल हुआ, जिसमें दिनेश कुमार का भी नाम था। इस पत्र के आधार पर SSP उधमसिंह नगर ने कांस्टेबल के विरुद्ध कार्रवाई के आदेश दिए, जबकि वास्तविकता यह थी कि दिनेश कुमार पहले से ही उस स्थान पर तीन माह से कार्यरत थे जिसकी सिफारिश कथित रूप से की गई थी।

 

एसएसपी द्वारा की गई विभागीय जांच में स्वतंत्र साक्ष्य के अभाव और याची का पक्ष सुने बिना दोषी ठहराया गया और 15 मार्च 2022 को दिनेश कुमार की चरित्र पंजिका में ‘परिनिन्दा प्रविष्टि’ दर्ज कर दी गई। उनकी अपील भी 24 जुलाई 2023 को IG कुमाऊं द्वारा खारिज कर दी गई।

 

ट्रिब्युनल की सदस्य कैप्टन आलोक शेखर तिवारी की पीठ ने याची के अधिवक्ता के तर्कों से सहमति जताते हुए स्पष्ट किया कि न सिर्फ जांच प्रक्रिया में प्राकृतिक न्याय का उल्लंघन हुआ, बल्कि जिस सिफारिश के आधार पर दंडित किया गया, वह वस्तुतः कोई अनुशासनहीनता नहीं थी। आदेश में यह भी उल्लेख किया गया कि इसी मामले में शामिल अन्य पुलिसकर्मियों को पहले ही ट्रिब्युनल दोषमुक्त कर चुका है।

 

अतः ट्रिब्युनल ने SSP और IG द्वारा जारी आदेशों को “अपास्त किया जाना श्रेयस्कर” मानते हुए रद्द कर दिया। साथ ही निर्देश दिया गया कि इस आदेश की प्रति प्राप्त होने के 30 दिनों के भीतर याची की चरित्र पंजिका से दंड प्रविष्टि हटाई जाए और उन्हें सभी सेवा लाभ प्रदान किए जाएं।

 

यह फैसला न केवल पुलिस विभाग की कार्यप्रणाली पर सवाल खड़ा करता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि किसी भी जनप्रतिनिधि की सिफारिश के नाम पर की गई अनुशासनात्मक कार्रवाई न्यायालय में टिक नहीं सकती जब तक कि उसके पीछे ठोस साक्ष्य न हों।

 

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