वन विभाग के अधिकारी भ्रष्ट हैं या लापरवाह? बड़ा सवाल है।
अज़हर मलिक
एक तरफ जहाँ उत्तराखंड सरकार और उत्तराखंड उच्च न्यायालय के आदेश हैं कि राज्य में अतिक्रमित भूमि को मुक्त कराया जाए, वहीं दूसरी ओर तराई पश्चिमी डिवीजन, रामनगर की रेंज आमपोखरा में गजब का कारनामा सामने आ रहा है। यहां वन विभाग अतिक्रमण मुक्त कराई गई वन भूमि को दोबारा अतिक्रमण से बचाने में नाकाम नजर आ रहा है। बड़ा सवाल यह उठता है कि जब वन विभाग अतिक्रमण मुक्त की गई भूमि — जिसमें प्लांटेशन भी लगा हुआ है — को नहीं बचा पा रहा, तो वह पुराने अतिक्रमण कैसे हटाएगा? क्या वन विभाग सिर्फ सीधे-साधे वन गुर्जरों पर ही ‘शेर’ बनता है, जो किसी तरह पशुपालन कर बड़ी मुश्किल से जीवन यापन कर रहे हैं? पढ़िए, इस पर हमारी एक खास रिपोर्ट।
तराई पश्चिमी डिवीजन, रामनगर यूं तो अवैध खनन और हरे पेड़ों के कटान को लेकर अक्सर सुर्खियों में रहता है, लेकिन इस बार मामला थोड़ा अलग है। 22 मई 2025 को वन विभाग के अधिकारी सैकड़ों वनकर्मियों और भारी संख्या में पुलिस बल के साथ आमपोखरा स्थित तुमड़िया खत्ते में नए अतिक्रमण को हटाने पहुंचे। धामी सरकार के बुलडोजरों और ट्रैक्टरों की कतार में पूरा विभाग अपने ‘भोकाल’ में नजर आया। हरे पौधों की कब्र खोदकर जिस भूमि पर वन गुर्जरों ने अतिक्रमण किया था और गैर-वन गतिविधियां चला रहे थे, उस लगभग 22 हेक्टेयर भूमि को खाली कराया गया और वहां बाबुल आदि के बीज लगाकर प्लांटेशन कर दिया गया। इस कार्रवाई की जनता ने सराहना की, और वन विभाग की यह कार्रवाई चर्चा का विषय बन गई।
लेकिन क्या यह चर्चा स्थायी थी? शायद नहीं। अतिक्रमणकारी वन गुर्जरों ने फिर से वही खेल शुरू कर दिया। उन्होंने वन विभाग द्वारा बनाई गई सुरक्षा खाइयों को बंद करना शुरू कर दिया और लगाई गई पौधों को नष्ट करना शुरू कर दिया। दिन में उनकी गाय-भैंसे छोटे पौधों को रौंदती हैं और रात में ट्रैक्टरों से दोबारा भूमि जोती जा रही है। लाखों रुपये खर्च कर जो प्लांटेशन हुआ, वह फिर से अतिक्रमण की भेंट चढ़ रहा है।
गंभीर सवाल यह है कि जब ये वन गुर्जर दोबारा अतिक्रमण शुरू करते हैं तो मौके पर मौजूद वन विभाग के कर्मचारी और अधिकारी इन्हें रोकने में नाकाम क्यों रहते हैं? बाद में जब अतिक्रमण हो जाता है, तब वही अधिकारी कार्रवाई कर अपनी पीठ थपथपाते हैं — लेकिन उस कार्रवाई में खर्च हुआ बजट किसकी जेब से गया? उत्तराखंड सरकार की? या जनता की?
इस पूरे मामले में न तो सरकार जवाब मांग रही है और न ही वन विभाग के उच्च अधिकारी अपने अधीनस्थों से जवाब तलब कर रहे हैं। तुमड़िया खत्ते में अतिक्रमण हटाने में कितना बजट खर्च हुआ इसका सटीक आंकड़ा भले न हो, लेकिन यह तय है कि अगर वही भूमि फिर से अतिक्रमण में चली जाती है तो सवाल उठता है कि क्या सरकार वन अधिकारियों से इस खर्चे की वसूली करेगी?
यह सवाल डीएफओ प्रकाश चंद्र आर्य और उप प्रभागीय वनाधिकारी संदीप गिरी से भी पूछा जाना चाहिए। जब उनके नेतृत्व में लगभग 22 हेक्टेयर भूमि से गैर-वन गतिविधियों को हटाया गया और प्लांटेशन हुआ, तो अब वही भूमि फिर से कैसे अतिक्रमण के साये में आ गई? क्या वे इस पर नजर नहीं रख पा रहे, या फिर एयर-कंडीशन कमरे से बाहर आने का कोई ‘मुहूर्त’ देख रहे हैं?
अब जनता की निगाहें कुमाऊं के तेजतर्रार चीफ धीरज पांडे पर टिकी हैं। उम्मीद है कि वह इस नए अतिक्रमण पर सख्त एक्शन लेंगे। लेकिन यह उम्मीद कब पूरी होगी — यह वक्त बताएगा।
बरसात के इस मौसम में लापरवाह अधिकारी गहरी नींद में हैं। उन्हें न तो खर्च हुए बजट की चिंता है और न ही प्लांटेशन की सुरक्षा की जिम्मेदारी बची है। अगर लाखों रुपए खर्च कर जो प्लांटेशन लगाया गया है, वह दोबारा अतिक्रमण की भेंट चढ़ता है, तो फिर अतिक्रमण हटाने की कवायद सिर्फ एक नाटक लगती है। सुरक्षा खाइयां मिटाई जा रही हैं, ट्रैक्टर रात में घुसाए जा रहे हैं, और अधिकारी सिर्फ मूकदर्शक हैं। यह सिर्फ लापरवाही नहीं — शायद यह सुनियोजित शिथिलता है, ताकि बजट खर्च हो, ठेकेदारों को भुगतान हो, और फिर दोबारा वही चक्र शुरू हो।
अब सवाल कुमाऊं चीफ धीरज पांडे से भी बनता है। जबसे उन्होंने मंडल की जिम्मेदारी संभाली है, जंगलों में लकड़ी तस्करी की कई घटनाएं सामने आई हैं, और अब जमीनें भी सुरक्षित नहीं रहीं। उन्हें तेजतर्रार अधिकारी माना जाता है, लेकिन सवाल यह है कि जब तुमड़िया खत्ते में दोबारा अतिक्रमण हो रहा है, तो जिम्मेदारी किसकी बनती है?
जिन वन गुर्जरों ने दोबारा अतिक्रमण किया है, उनके खिलाफ पहले से दर्जनों मुकदमे दर्ज हैं — और अब तो रामनगर कोतवाली में कर्मचारियों के खिलाफ भी शिकायत दर्ज हो चुकी है। क्या यह ‘दबंग’ वन गुर्जर कानून को धता बताकर फिर से भूमि कब्जा करने में कामयाब होंगे?
साहब, क्या आपको नहीं लगता कि अब इन कर्मचारियों और अधिकारियों को आपकी सख्त जरूरत है?