त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में प्रचार का कम समय बना प्रत्याशियों की चुनौती।

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त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में प्रचार का कम समय बना प्रत्याशियों की चुनौती।

              सलीम अहमद साहिल 

 

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उत्तराखंड में त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव के दूसरे चरण की सरगर्मियाँ अब अपने चरम की ओर बढ़ने लगी हैं। आज ग्राम प्रधान, क्षेत्र पंचायत सदस्य और जिला पंचायत सदस्य के प्रत्याशियों को चुनाव चिन्ह आवंटित किए जा रहे हैं। चुनाव चिन्ह मिलते ही प्रत्याशियों ने अब अपने-अपने क्षेत्रों में डेरा डालना शुरू कर देंगे । परंतु इस बार एक बड़ी चुनौती सामने है — प्रचार के लिए समय की भारी कमी।

 

विशेषकर जिला पंचायत सदस्य जैसे महत्वपूर्ण पद के लिए चुनाव लड़ रहे प्रत्याशियों को चिन्ह मिलने के बाद सिर्फ 8 दिन का प्रचार समय मिलेगा। एक ओर जहां पंचायत को ‘मिनी सरकार’ कहा जाता है, वहीं इन सरकारों को चलाने वाले प्रतिनिधियों को चुनाव में इतनी बड़ी जिम्मेदारी निभाने से पहले बहुत सीमित समय में खुद को जनता तक पहुंचाना होगा।

 

कम समय, बड़ा क्षेत्र – कैसे पहुंचेगा संदेश?

 

जिला पंचायतों का कार्यक्षेत्र काफी विस्तृत होता है। एक-एक सदस्य को दर्जनों गांवों और हजारों मतदाताओं से संपर्क करना होता है। ऐसे में 8 दिन के अंदर चुनाव चिन्ह को घर-घर तक पहुंचाना और लोगों को अपनी योजनाओं से अवगत कराना प्रत्याशियों के लिए किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं।

 

इस बार कई प्रत्याशी इस बात को लेकर खासे चिंतित हैं कि सीमित प्रचार अवधि के चलते उनकी नीति, नीयत और योजना मतदाताओं तक कैसे पहुंचेगी? अधिकांश प्रत्याशी अब सोशल मीडिया, अधिक प्रचार वाहन, और जनसंपर्क अभियानों का तेजी से सहारा लेंगे।

 

राजनीतिक दलों की बारीकी से नजर – पंचायत चुनाव बनेंगे 2027 के संकेतक

 

हालांकि पंचायत चुनाव दलगत आधार पर नहीं होते, लेकिन भाजपा और कांग्रेस जैसे प्रमुख राजनीतिक दल इस चुनाव को 2027 के विधानसभा चुनाव की पृष्ठभूमि मानकर देख रहे हैं। दोनों ही दलों ने अपने समर्थित प्रत्याशियों को जीत दिलाने के लिए संगठनात्मक स्तर पर मजबूत तैयारियाँ की हैं।

 

जहाँ भाजपा “त्रिस्तरीय विकास” और “डबल इंजन सरकार” के नाम पर मतदाताओं को साधने की कोशिश में है, वहीं कांग्रेस गांव-गांव जाकर भाजपा जनविरोधी नीतियों के खिलाफ माहौल बना रही है।

 

विशेषज्ञों का मानना है कि त्रिस्तरीय पंचायत चुनावों में जिस दल से जुड़े अधिक प्रत्याशी जीतते हैं, वह दल ग्रामीण क्षेत्रों में अपनी पकड़ मज़बूत कर लेता है, जो आगे चलकर विधानसभा चुनावों में सीधा असर डालता है।

 

लोकतंत्र का पहला पायदान फिर बना रणभूमि

 

पंचायतों को लोकतंत्र की जड़ माना जाता है, और इस चुनावी समर में ये साबित भी हो रहा है। हर प्रत्याशी गांव की सरकार का प्रतिनिधि बनने के लिए पूरा दमखम लगा रहा है, लेकिन प्रचार की समयसीमा और क्षेत्र की व्यापकता ने इस बार चुनाव को और भी चुनौतियों से भर दिया है।

 

अब देखना यह है कि कौन प्रत्याशी इस समय की कसौटी पर खरा उतरता है और जनता का विश्वास जीतकर पंचायत की ‘मिनी सरकार’ का हिस्सा बनता है। साथ ही, इन चुनावों का असर 2027 की विधानसभा राजनीति में किस रूप में परिलक्षित होगा, यह भी आने वाला समय ही बताएगा

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