Pahadi Girls Viral Reels: कल्चर बनाम क्लाउट – वायरल वीडियो के पीछे की असली कहानी
2025 में जैसे-जैसे इंस्टाग्राम, यूट्यूब शॉर्ट्स और फेसबुक रील्स का क्रेज़ बढ़ा है, वैसे-वैसे देश के हर कोने से लड़कियों की कहानियां सोशल मीडिया पर वायरल होने लगी हैं। लेकिन हाल ही में एक नया ट्रेंड जो तेजी से वायरल हो रहा है, वह है “Pahadi Girls Viral Reels”। उत्तराखंड, हिमाचल और जम्मू-कश्मीर की पहाड़ी लड़कियाँ पारंपरिक परिधानों, जड़ों से जुड़े डांस मूव्स, झूले, झरनों और चाय के प्यालों के साथ इंटरनेट पर छा चुकी हैं। इन रील्स को लाखों लाइक्स, करोड़ों व्यूज़ और हजारों शेयर मिल रहे हैं। लेकिन सवाल यह है कि यह वायरल ट्रेंड सिर्फ एक सोशल मीडिया “क्लाउट” है या वाकई यह पहाड़ी संस्कृति को बढ़ावा देने की कोशिश है? क्या ये वीडियोज़ सांस्कृतिक पहचान को और मजबूत कर रही हैं या फिर केवल एस्थेटिक बैकग्राउंड बनाकर लाइमलाइट में आने का जरिया बन चुकी हैं?
पहाड़ी रीजन की लड़कियाँ आज सिर्फ ब्यूटीफुल वादियों में घूमती हुई नज़र नहीं आतीं, बल्कि वे खुद कैमरा थामे, एडिटिंग सॉफ्टवेयर में पारंगत और सोशल मीडिया के एल्गोरिदम को समझती हुई एक नई डिजिटल पीढ़ी की तस्वीर पेश कर रही हैं। वे अब किसी भी बॉलीवुड सॉन्ग पर ट्रेंडिंग मूव्स करती हैं, लेकिन साथ ही गढ़वाली, कुमाउनी या पहाड़ी गानों पर भी बखूबी थिरकती हैं। उनके पारंपरिक कपड़े – घाघरा, पिचौरा, नथ और मांगटीका – आज केवल शादियों में नहीं, बल्कि सोशल मीडिया पर ग्लोबल ट्रेंड बन चुके हैं। लेकिन इस ग्लैमर के पीछे जो बड़ी बहस छुपी है, वो ये है कि क्या ये सब संस्कृति के लिए है या सिर्फ वर्चुअल फेम के लिए?
कुछ एक्सपर्ट्स का मानना है कि इन रील्स के ज़रिए पहाड़ी सभ्यता, लोकगीत, पारंपरिक पोशाकें और रीति-रिवाज़ों को नई पहचान मिल रही है। पहले जहां इन रीजनल एलिमेंट्स को ‘पुराना’ और ‘बोरिंग’ कहा जाता था, वहीं अब यही चीज़ें ट्रेंडी और वायरल हो चुकी हैं। इन वीडियोज़ ने ना सिर्फ लोकल टूरिज्म को बूस्ट किया है, बल्कि पहाड़ी संस्कृति को भी डिजिटल लेवल पर यूथ के बीच कूल बना दिया है। कई लोग अब गढ़वाली गानों के रील्स बनाकर हज़ारों फॉलोअर्स बटोर रहे हैं। पहाड़ों की चाय, वादियाँ और बूट पहनकर खींची गई तस्वीरें सिर्फ इंस्टा एस्थेटिक्स नहीं रह गईं – यह एक इंडस्ट्री बन चुकी है।
लेकिन दूसरी तरफ कुछ लोग इसे ‘कल्चरल एप्रोप्रिएशन’ यानी संस्कृति की सतही नकल के रूप में भी देख रहे हैं। कई बार रील्स में पारंपरिक पोशाकों को फैशन एलिमेंट्स की तरह इस्तेमाल किया जाता है, जिसमें न तो सही पहनने का तरीका होता है और न ही उसके पीछे की सांस्कृतिक भावनाओं की समझ। इस तरह की वीडियो कंटेंट कभी-कभी उस संस्कृति का गलत प्रस्तुतीकरण भी करती है। बहुत सी वायरल रील्स में गढ़वाली डायलॉग्स को कॉमिक अंदाज़ में दिखाया जाता है, जिससे असली लोक भाषा की गरिमा कम हो जाती है। जब कंटेंट का मकसद केवल व्यूज़ और लाइक्स बटोरना रह जाए, तब संस्कृति का सम्मान कहीं पीछे छूट जाता है।
सवाल यह भी उठता है कि क्या इन रील्स से वाकई पहाड़ी लड़कियों को सशक्तिकरण मिल रहा है या वे एक बार फिर केवल “वायरल ऑब्जेक्ट” बनती जा रही हैं? कई बार इन्हें सिर्फ ‘प्रीटी फेस इन ट्रडिशनल ड्रेस’ के तौर पर देखा जाता है, जबकि उनके टैलेंट, मेहनत और सोच को नजरअंदाज किया जाता है। सोशल मीडिया पर वायरल होने का मतलब ये नहीं कि असल ज़िंदगी में भी बदलाव हो रहा है। अगर डिजिटल दुनिया की शोहरत ग्राउंड लेवल पर शिक्षा, रोजगार या लैंगिक समानता के रूप में सामने न आए, तो ये “वायरल फेम” सिर्फ एक आभासी सपना बनकर रह जाता है।
हालाँकि, एक पॉज़िटिव पहलू यह भी है कि अब खुद पहाड़ी लड़कियाँ कंटेंट क्रिएटर बनने लगी हैं, ब्रांड कोलैब्स कर रही हैं, रीजनल इन्फ्लुएंसर्स के रूप में उभर रही हैं और अपनी कमाई खुद कर रही हैं। वे अब किसी बाहरी एजेंसी की मोहताज नहीं हैं। वे अपनी ज़मीन, अपनी बोली और अपनी पहचान को ग्लोबल लेवल पर लेकर जा रही हैं
— जोकि असली डिजिटल सश