Jharkhand Mukti Morcha: क्या आज का आंदोलन 70 के दशक की आग को दोहरा रहा है

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Jharkhand Mukti Morcha: क्या आज का आंदोलन 70 के दशक की आग को दोहरा रहा है

 

झारखंड मुक्ति मोर्चा और उससे जुड़ा झारखंड आंदोलन 2025 में एक बार फिर चर्चाओं के केंद्र में है, और इसका कारण सिर्फ ऐतिहासिक भावनाएं नहीं बल्कि वर्तमान राजनीतिक समीकरण हैं जो फिर से राज्य में उथल-पुथल पैदा कर रहे हैं। एक तरफ सोशल मीडिया पर #JharkhandMuktiMorcha, #JMMRevolution, #JharkhandRights, #TribalJustice जैसे हैशटैग्स के साथ 12 हजार से ज्यादा ट्वीट्स हो चुके हैं, वहीं दूसरी ओर जमीनी स्तर पर आदिवासी समुदाय, छात्र संगठन और राजनीतिक कार्यकर्ता यह सवाल उठा रहे हैं कि जिन अधिकारों के लिए दशकों तक आंदोलन चला, क्या वो वास्तव में आज के झारखंड को मिल पाए हैं या यह राज्य सिर्फ राजनीतिक सौदेबाज़ियों का अखाड़ा बनकर रह गया है। झारखंड मुक्ति मोर्चा की स्थापना 1972 में आदिवासियों, मज़दूरों और किसानों के अधिकारों के लिए की गई थी, लेकिन आज जब हेमंत सोरेन की गैरमौजूदगी में नेतृत्व संकट गहराता जा रहा है और CBI, ED जैसी केंद्रीय एजेंसियां कई नेताओं पर शिकंजा कस रही हैं, तो इस पार्टी की विचारधारा और जमीनी पकड़ को लेकर सवाल उठने लगे हैं।

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हाल ही में जब हेमंत सोरेन को मनी लॉन्ड्रिंग केस में हिरासत में लिया गया और झारखंड के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा, तभी से राज्य में सत्ता की दिशा और पार्टी की नैतिकता दोनों को लेकर बड़े-बड़े विश्लेषण सामने आने लगे। झारखंड मुक्ति मोर्चा, जिसने कभी बिहार से अलग झारखंड राज्य की मांग को लेकर हजारों युवाओं को गोलबंद किया था, आज खुद को भ्रष्टाचार, आदिवासी उपेक्षा और विकास में असमानता के आरोपों से घिरा पा रहा है। वहीं दूसरी तरफ JMM के समर्थक इसे केंद्र सरकार की राजनीतिक बदले की कार्रवाई बताते हैं और बार-बार यह दोहराते हैं कि यह पार्टी आज भी झारखंड की असली पहचान और संस्कृति की प्रतिनिधि है।

 

झारखंड आंदोलन केवल एक राज्य की मांग नहीं था, यह आदिवासी अस्मिता, ज़मीन के हक, वन अधिकार और स्वराज की अवधारणा से जुड़ा आंदोलन था। लेकिन 2000 में जब झारखंड राज्य बना और बाद में सत्ता JMM के हाथों आई, तो उम्मीद थी कि यह सरकार राज्य के जल-जंगल-जमीन को निजीकरण से बचाएगी, आदिवासी गांवों को शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार का लाभ दिलाएगी और पलायन को रोकेगी — लेकिन 2025 में आते-आते ये वादे अधूरे ही नजर आते हैं। रांची, बोकारो, जमशेदपुर जैसे इलाकों में स्मार्ट सिटी और इंफ्रास्ट्रक्चर का विकास जरूर हुआ है, लेकिन चाईबासा, दुमका, गढ़वा, लातेहार जैसे आदिवासी इलाकों में अब भी मूलभूत सुविधाओं की कमी और खनन कंपनियों की मनमानी साफ दिखाई देती है।

 

राज्य में खनिज संपदा की भरमार है, लेकिन उसका लाभ कितने स्थानीय लोगों को मिला है — यह एक बड़ा सवाल बन चुका है। झारखंड के युवाओं में एक नई राजनीतिक चेतना जाग रही है और वो पूछ रहे हैं कि क्या झारखंड मुक्ति मोर्चा अब भी उसी क्रांतिकारी विचारधारा पर कायम है, जो शिबू सोरेन, एकलव्य, बिनोद बिहारी महतो और निर्मल महतो जैसे नेताओं ने शुरू की थी, या फिर यह पार्टी भी अब ‘सत्ता की राजनीति’ में गुम हो गई है।

 

JMM की मौजूदा सहयोगी पार्टियों, जैसे कांग्रेस और RJD, ने भी इस आंदोलन की आत्मा को दोहराने की कोशिश की है लेकिन सोशल मीडिया पर JMM के युवा कार्यकर्ताओं का मानना है कि अगर पार्टी को 2025 के चुनाव में आदिवासी समर्थन फिर से चाहिए, तो उसे न सिर्फ संगठन को मज़बूत करना होगा बल्कि ईमानदारी से पुराने झारखंडी मुद्दों की तरफ लौटना होगा — जैसे CNT और SPT एक्ट की रक्षा, भूमि अधिग्रहण विरोध, जल-जंगल-जमीन के स्थानीय अधिकार, और खतियान आधारित आरक्षण।

 

शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में झारखंड की हालत अभी भी राष्ट्रीय औसत से पीछे है। पलायन की समस्या जस की तस बनी हुई है, और हर साल हज़ारों आदिवासी उत्तर भारत और दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों में मज़दूरी के लिए पलायन कर जाते हैं। इन सबके बीच, झारखंड मुक्ति मोर्चा के पुराने कार्यकर्ता फिर से गाँवों में जन जागरूकता अभियान चला रहे हैं, जिससे यह संकेत मिल रहा है कि झारखंड आंदोलन की चिंगारी अभी पूरी तरह बुझी नहीं है।

 

JMM की डिजिटल मौजूदगी भी पिछले एक साल में काफी बढ़ी है — YouTube चैनल पर डॉक्यूमेंट्रीज़, Facebook लाइव भाषण, और Twitter/X पर जमीनी रिपोर्टें शेयर की जा रही हैं, जिससे पार्टी युवा वर्ग से जुड़ने की कोशिश कर रही है। लेकिन राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि केवल सोशल मीडिया कैंपेन से बदलाव नहीं होगा, जब तक कि सरकार खुद आदिवासी क्षेत्रों में जाकर उनकी मूल समस्याओं को नहीं समझेगी और नीतियों में उसे नहीं शामिल करेगी।

 

इस पूरे विमर्श में एक सवाल सबसे ज्यादा उठ

रहा है — क्या झारखंड

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