क्या पत्रकारिता सिर्फ लाभ का कारोबार बन चुकी है? पुराने और नए पत्रकारों पर उठते सवाल
अज़हर मलिक
आज के दौर में समाज में यह बड़ा सवाल उठ रहा है कि क्या पत्रकारिता अब पहले जैसी नहीं रही? क्या सच में पहले पत्रकारों में स्वाभिमान, ईमानदारी और मिशन भावना होती थी या फिर यह भी एक भ्रम मात्र था? क्योंकि अगर इतिहास के पन्ने पलटकर देखें तो पहले भी कई पत्रकारों ने अपने खुद के पेपर बनवाकर सरकार से विज्ञापन लेने और लाभ कमाने का रास्ता पकड़ा था। वे अख़बारों को फाइल कॉपी तक सीमित रखते और सिर्फ सरकारी विज्ञापन लेकर कमाई करते थे। यानी जो आज नए पत्रकारों पर आरोप लगाए जाते हैं—कि वे सिर्फ पहचान बनाने, पॉलिटिक्स से नज़दीकी रखने, संपर्क बढ़ाने, चापलूसी करने और ब्लैकमेलिंग के लिए आए हैं—वही परंपरा असल में पुराने समय से चली आ रही है। सत्ता से सवाल करने की नसीहत देने वाले कई सीनियर पत्रकार खुद आज सत्ता से सवाल करने की हिम्मत नहीं रखते। बल्कि वे नए पत्रकारों पर उंगली उठाकर खुद को महान सिद्ध करने और अपनी विज्ञापन की दुकानदारी बचाए रखने की कोशिश करते हैं। जबकि सच यह है कि आज कई नए डिजिटल पत्रकार मिशन भावना के साथ जनहित मुद्दों पर सवाल उठा रहे हैं, भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ बुलंद कर रहे हैं, और उन जगहों पर सच कह रहे हैं जहां पारंपरिक अखबार और पुराने पत्रकार चुप बैठे हैं। अंग्रेजों के जमाने से लेकर आज तक सत्ता की चापलूसी करने वाले पत्रकार मौजूद रहे हैं, जिन्होंने सिस्टम को बिगाड़ा और पत्रकारिता को व्यवसाय की तरह इस्तेमाल किया। इसलिए यह कहना कि पहले पत्रकारिता पवित्र थी और आज गंदी हो गई है—पूरी तरह सही नहीं। हां, इतने बदलावों के बावजूद आज भी ईमानदार और निष्पक्ष पत्रकारों की कमी नहीं है। वही पत्रकार समाज में सम्मान भी पाते हैं और जनता उनके सवालों को महत्व भी देती है। देश अभिसार शर्मा, रवीश कुमार जैसे पत्रकारों को आज भी सम्मान देता है क्योंकि वे सत्ता से सवाल करते हैं, जनता की आवाज़ बनते हैं और पत्रकारिता की गरिमा को बनाए रखते हैं। पत्रकारिता में न कोई ग्रेड A-B-C होती है और न ही सीनियर-जूनियर का नैतिक दर्जा—ईमानदार पत्रकार ही सर्वोपरि होता है। जो पत्रकार जनता के मुद्दे उठाता है, सत्ता से सवाल करता है और सच दिखाने की हिम्मत रखता है, वही असली पत्रकार है। बाकी जो सिर्फ नाम के अखबार चलाकर सरकारी विज्ञापन लेते हैं और चापलूसी व लाभ कमाने की मशीन बनाए बैठे हैं—वे पत्रकारिता नहीं, एक दुकान चला रहे हैं। सच बिकता है और झूठ चमकता है—यही बाजार आज भी है और पहले भी था। फर्क बस इतना है कि आज सच बोलने की हिम्मत डिजिटल प्लेटफॉर्म ने युवाओं को दी है, और पत्रकारिता की बचे-खुचे सम्मान की लौ आज भी वही नए पत्रकार जगा रहे हैं जो बिना डर के जनता के मुद्दे सामने ला रहे हैं
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