रोज़ा ना रखने पर इस्लामी सज़ा क्या है

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रोज़ा ना रखने पर इस्लामी सज़ा क्या है

 

इस्लाम में रोज़ा एक बेहद महत्वपूर्ण इबादत है जो रमज़ान के महीने में हर बालिग़, अक़लमंद, और तंदुरुस्त मुसलमान मर्द और औरत पर फ़र्ज़ कर दी गई है। क़ुरआन शरीफ की सूरह अल-बक़रा (2:183) में अल्लाह तआला फरमाते हैं: “ऐ ईमान वालो! तुम पर रोज़े फ़र्ज़ किए गए हैं जैसे तुमसे पहले लोगों पर किए गए थे, ताकि तुम परहेज़गार बनो।” यानी रोज़ा आत्मसंयम, तक़वा और अल्लाह की बंदगी को मजबूत करता है। इस्लामी शरीअत में यह इबादत इतनी अहम है कि जो कोई जानबूझकर और बिना किसी शरई वजह के रमज़ान के महीने में रोज़ा नहीं रखता, उसके लिए बहुत कड़ा गुनाह बताया गया है। हदीसों में रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने ऐसे व्यक्ति के लिए गंभीर चेतावनी दी है। एक हदीस में आता है कि “जो शख़्स रमज़ान के एक रोज़े को बिना उज्र के छोड़ दे, तो वह सारी उम्र रोज़े रखे तब भी उसकी भरपाई नहीं कर सकता।” यानी जानबूझकर एक रोज़ा छोड़ना बेहद संगीन मामला है।

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इस्लामी सज़ा की बात करें तो शरीअत सज़ा दो तरह की होती है – एक दुनियावी और दूसरी आख़िरती। दुनियावी सज़ा का निर्धारण इस्लामी क़ाज़ी या अदालत के ज़रिए होता है, लेकिन अगर कोई इस्लामी हुकूमत नहीं है तो व्यक्ति का मामला अल्लाह के सुपुर्द रहता है। अगर कोई इंसान बीमारी, सफ़र, गर्भवती होने, दूध पिलाने या बुज़ुर्ग होने की वजह से रोज़ा नहीं रखता तो उसे शरीअत ने छूट दी है, लेकिन उसकी कज़ा या फ़िद्या अदा करना ज़रूरी होता है। परंतु जो जानबूझकर बिना किसी कारण के रोज़ा नहीं रखता, न शर्म महसूस करता है, न तौबा करता है, उसके लिए यह बहुत बड़ा गुनाह है और उसकी सज़ा आख़िरत में जहन्नम की आग है। एक हदीस में आता है कि “जब मैंने स्वप्न में दो फ़रिश्तों को देखा तो उन्होंने मुझे एक शख्स की ओर ले जाया जिसका जबड़ा फाड़ा जा रहा था, और बताया कि यह वो है जो रमज़ान में रोज़ा नहीं रखता था।” यह सख्त अल्फ़ाज़ बताते हैं कि रोज़ा छोड़ना सिर्फ़ एक गुनाह नहीं बल्कि अल्लाह की एक सीधी आज्ञा की अवहेलना है।

 

अगर कोई मुसलमान किसी गुनाह के तहत रोज़ा छोड़ बैठा हो, तो उस पर वाजिब है कि वह सच्चे दिल से तौबा करे, अल्लाह से माफ़ी मांगे और जितने रोज़े छोड़ दिए हैं, उनकी कज़ा करे। इस्लामी कानून में ऐसे व्यक्ति के लिए कोड़े मारने जैसी शरीरिक सज़ा का उल्लेख नहीं मिलता जब तक वह रोज़ा छोड़कर उसका उपहास न करे या इस्लाम का अपमान न करे। लेकिन यदि कोई खुलेआम रमज़ान में खाने-पीने लगे, इस्लामी समाज में फितना फैलाए, तो इस्लामी हुकूमत के तहत उस पर ता’ज़ीरी सज़ा लागू की जा सकती है, जैसे डांटना, सामाजिक बहिष्कार या कुछ मामलों में जेल जैसी कार्यवाही। हालांकि, ये सज़ा शरीअत क़ाज़ी ही तय करता है। यह भी ज़रूरी है कि मुसलमान न सिर्फ़ रोज़ा रखे, बल्कि उसका आदब भी करे। सिर्फ़ भूखा-प्यासा रहना रोज़ा नहीं है, बल्कि झूठ, गाली, धोखा, झगड़ा और फ़ुज़ूल बातें भी रोज़ा तोड़ने वाली बातें हैं, और इनसे भी बचना ज़रूरी है।

 

रोज़ा एक इबादत होने के साथ-साथ अल्लाह से जुड़ने का ज़रिया है। यह गुनाहों का कफ़्फ़ारा है, दिल की सफाई का कारण है और तौबा की राह खोलता है। इसलिए जो व्यक्ति जानबूझकर इस इबादत को छोड़ता है, वह खुद को अल्लाह की रहमत से दूर करता है। इस्लाम में तौबा के दरवाज़े हमेशा खुले हैं, इसलिए जो व्यक्ति अब तक रोज़ा नहीं रखता रहा, वह सच्चे दिल से लौट आए तो अल्लाह उसे माफ़ कर सकता है। अल्लाह तआला फरमाते हैं – “ऐ मेरे बंदों! जो अपनी जानों पर ज़्यादती कर बैठे हो, अल्लाह की रहमत से मायूस न हो, बेशक अल्लाह सारे गुनाहों को माफ़ कर देता है।” (सूरह ज़ुमर 39:53)

 

इसलिए यह समझना ज़रूरी है कि इस्लाम में रोज़ा न रखना सिर्फ़ एक धार्मिक लापरवाही नहीं, बल्कि गंभीर धार्मिक अपराध है अगर वह जानबूझकर किया जाए। लेकिन साथ ही इस्लाम रहमत और माफी का भी धर्म है। यदि कोई व्यक्ति तौबा करता है, तो उसके लिए फिर से रास्ता खुला है। इस्लाम सज़ा देने से ज़्यादा हिदायत देने वाला मज़हब है। रोज़े की अहमियत को समझना, इसे पूरे श्रद्धा और नियत से निभाना, और अगर गलती हो जाए तो फौरन तौबा करना – यही एक सच्चे मुसलमान की पहचान है।

 

 

 

अगर आप चाहें तो इस टॉपिक पर “रोज़ा छोड़ने की कज़ा और फ़िद्या की प्रक्रिया”, “तौबा के फायदे” या “रमज़ान की इबादतों का फल” जैसे उपविषयों पर भी लेख तैया

र किया जा सकता है।

 

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