किस बिल में छुपा है काशीपुर कांग्रेस संगठन
अज़हर मलिक
उत्तराखंड में जहां एक ओर भाजपा अपना दायित्व और राजनीतिक साम्राज्य बढ़ाती दिख रही है, वहीं कांग्रेस लगातार कमजोर पड़ती जा रही है। राज्य में कांग्रेस की हालत इस कदर पतली होती जा रही है कि अब इसके पास न तो सशक्त संगठन बचा है, न ही मुखर नेता, और न ही कोई ठोस रणनीति। सरकार की नीतियों का विरोध करने वाले चेहरे भी गिनती के रह गए हैं।
उत्तराखंड में स्मार्ट मीटर जैसे मुद्दे पर जहां-तहां कांग्रेस के कुछ प्रयास जरूर दिखे, लेकिन काशीपुर में तो मानो कांग्रेस का संगठन पूरी तरह से विलुप्त हो गया हो। यहां कांग्रेस न तो सड़कों पर उतरने की हालत में है और न ही जनहित के मुद्दों पर आवाज उठाने की स्थिति में। हालात ऐसे हैं कि चंद नए चेहरे ही किसी प्रदर्शन की शोभा बढ़ाते हैं, जबकि पुराने नेता खुद को किनारे कर चुके हैं।
काशीपुर में कांग्रेस अब प्रदर्शन की बजाय केवल चौराहों पर खड़े होकर चर्चा करने तक सिमट गई है। संगठन के बड़े पदाधिकारी भी जनता के मुद्दों पर चुप्पी साधे बैठे हैं। कुछ ऐसे भी कांग्रेस के नेता हैं जो माइक पकड़ते ही अधिकारियों की तारीफों में कसीदे पढ़ने लगते हैं। जनहित की मांगों पर जब आवाज उठानी होती है, तब कांग्रेस के जिम्मेदार चुप हो जाते हैं। न वो दरी बची है जिसे बिछाकर कांग्रेस आंदोलन किया करती थी, और न ही वो जज़्बा कि जनता के लिए जमीनी लड़ाई लड़ी जा सके।
काशीपुर की कांग्रेस अब आपसी खींचतान और गुटबाजी में उलझी हुई है। कुछ नेता तो मानो भाजपा के एजेंट की तरह काम कर रहे हैं—संगठन के भीतर रहकर ही कांग्रेस को खोखला कर रहे हैं। कांग्रेस नेतृत्व भी इन भीतरघातियों पर कोई कार्रवाई करने के बजाय उन्हें ही मंच पर जगह दे रहा है।
हालात यह हो गए हैं कि अब संगठन में न तो कोई खुलकर विरोध कर सकता है, और न ही कोई अपनी बात मजबूती से सामने रख सकता है। पर्दे के पीछे से एक-दूसरे के खिलाफ झूठी कहानियाँ गढ़ने और हवा फैलाने का काम जरूर किया जा रहा है, जिससे कांग्रेस की छवि और संगठन दोनों को गहरी चोट लग रही है।
यदि कांग्रेस हाईकमान वाकई में संगठन को मजबूत करना चाहता है तो सबसे पहले काशीपुर के पदाधिकारियों की जिम्मेदारी में बदलाव करना होगा। जिनके ऊपर संगठन की जिम्मेदारी है, उनसे जवाबदेही तय करनी होगी। साथ ही, संगठन में उन चेहरों को सामने लाना होगा जो वास्तव में जमीनी संघर्ष कर सकते हैं।
अब वक्त आ गया है कि भीतरघातियों को संगठन से बाहर का रास्ता दिखाया जाए। वरना यह स्थिति “धोबी का कुत्ता, न घर का न घाट का” जैसी बन जाएगी। 2027 के विधानसभा चुनाव ज्यादा दूर नहीं हैं। अगर अभी भी कांग्रेस ने कड़े फैसले नहीं लिए, तो उत्तराखंड में ऐसा समय आ सकता है जब कांग्रेस के पास न संगठन बचेगा, न कार्यकर्ता, और न ही कोई ऐसा चेहरा जो झंडा उठाकर जनता के हक की लड़ाई लड़ सके। काशीपुर से इसकी शुरुआत हो चुकी है—अब कांग्रेस को खुद ही अपने कार्यकर्ताओं और नेताओं को खोजने के लिए दरवाज़े खटखटाने पड़ेंगे। लेकिन शायद तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।