रामनगर में मरीज नहीं, अस्पताल खुद बीमार है: ओपीडी के पर्चे से चल रहा सिस्टम, महीनों से एक रुपया भी नहीं मिला बजट
सलीम अहमद साहिल
आपने सुना होगा कि मरीज अस्पताल के भरोसे होते हैं, लेकिन उत्तराखंड के रामनगर में कहानी बिल्कुल उलट है—यहां अस्पताल ही मरीजों के भरोसे सांसें ले रहा है। अगर मरीज न आएं, तो अस्पताल के ताले बंद होने में देर नहीं लगेगी। यह कोई काल्पनिक दृश्य नहीं, बल्कि हकीकत है रामनगर के संयुक्त चिकित्सालय की, जो फिलहाल अपने अस्तित्व के लिए ओपीडी पर्चे की कमाई पर निर्भर है।
अप्रैल 2025 में जब यह अस्पताल पीपीपी मोड से हटाकर सीधे स्वास्थ्य विभाग के अधीन आया, तब से अब तक अस्पताल को न तो जरूरी दवाएं मिलीं, न किट्स और न ही एक भी पैसा बजट के रूप में दिया गया। पहले जहां पीपीपी मोड में अस्पताल को हर महीने दो करोड़ रुपये मिलते थे, वहीं अब सरकारी व्यवस्था में आने के बाद दो करोड़ का प्रस्ताव तो भेजा गया, लेकिन जून तक एक रुपया भी जारी नहीं हुआ। इस खाली झोली को भरने की जिम्मेदारी ओपीडी पर्चों पर डाल दी गई है। मरीज आते हैं, 20-30 रुपये के पर्चे बनते हैं और यही पर्चे अब अस्पताल की जीवनरेखा बन गए हैं। रोजाना करीब 400 से 500 मरीज आते हैं, जिससे लगभग 10,000 रुपये की आमदनी होती है और इसी से दवाओं की उधारी चुकाई जा रही है। मेडिकल स्टोर से उधार में दवा, ग्लूकोज, पट्टियां और जरूरी सामान मंगवाए जा रहे हैं,
लेकिन अब मेडिकल स्टोर संचालक भी अपनी बकाया राशियों को लेकर परेशान हैं और अस्पताल प्रशासन के चक्कर काटने लगे हैं। अस्पताल प्रशासन ने अप्रैल में ही दो करोड़ का प्रस्ताव भेज दिया था, लेकिन जब तीन महीने में एक रुपया तक न मिले, तो समझा जा सकता है कि व्यवस्था किस हद तक दम तोड़ रही है। सीएमएस डॉ. विनोद टम्टा ने भी माना कि सारी व्यवस्था ओपीडी की कमाई से चल रही है और बजट न मिलना सबसे बड़ी परेशानी है। पूर्व ब्लॉक प्रमुख संजय नेगी ने आरोप लगाया है कि सरकार अस्पताल को फिर से पीपीपी मोड में लाना चाहती है, इसलिए जानबूझकर बजट रोका गया है। वहीं सीएमओ डॉ. हरीश पंत का कहना है कि प्रस्ताव मिल चुका है और जल्द बजट जारी किया जाएगा। लेकिन जब मरीज की जान के साथ अस्पताल का भी वजूद जुड़ जाए, तब हालात वाकई गंभीर कहलाते हैं।
यह सिर्फ एक अस्पताल की कहानी नहीं है, बल्कि यह उत्तराखंड की सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था के खोखलेपन की तस्वीर है, जहां डॉक्टर कम और दस्तावेज़ ज़्यादा बोले जाते हैं, जहां इलाज से ज़्यादा इंतजार लंबा होता है और जहां सरकारी जिम्मेदारियां जवाबदेही से नहीं, उधारी से पूरी होती हैं।