साहब कुमाऊं के जंगल अब सुरक्षित नहीं। जब ‘रक्षक ही भक्षक’ बन जाएं, तो निष्पक्ष जांच की उम्मीद भी बेमानी लगती है।
सलीम अहमद साहिल
उत्तराखंड सरकार ने जिन जंगलों की सुरक्षा की जिम्मेदारी वन विभाग के अधिकारियों को सौंपी है, उन्हीं पर अब सवाल उठ रहे हैं। ये अधिकारी लापरवाह हैं या फिर सब कुछ पैसों के खेल का हिस्सा है? कुमाऊं के जंगलों से लगातार सामने आ रही लकड़ी तस्करी की घटनाओं ने इन अधिकारियों की कार्यप्रणाली की पोल खोल दी है। इन घटनाओं ने न सिर्फ वन विभाग की साख को झकझोरा है, बल्कि उत्तराखंड सरकार की छवि को भी गहरा नुकसान पहुंचाया है। हैरानी की बात यह है कि देहरादून में बैठे अधिकारी या तो इन घटनाओं से अनजान हैं, या फिर इन गंभीर अपराधों को छोटी-मोटी घटनाएं मानकर फाइलों में दफन कर दिया जाता है। सवाल ये भी है – क्या जिम्मेदार अधिकारी सिर्फ अपनी कुर्सी और पद बचाने के लिए सब कुछ अनदेखा कर रहे हैं? जवाब अभी भविष्य की परतों में छिपा है।
तराई पूर्वी डिवीजन, हल्द्वानी में अब सिर्फ पेड़ ही नहीं काटे जा रहे, बल्कि वन विभाग की नीतिगत जड़ें भी कमजोर हो चुकी हैं। सरकार भले ही वनों की सुरक्षा के दावे करे, लेकिन हकीकत यह है कि तस्कर सागौन जैसे कीमती पेड़ों को विभाग की नाक के नीचे से ट्रैक्टरों में भरकर ले जा रहे हैं। बाजपुर के बेरिया दौलत चौकी क्षेत्र में सामने आई ताजा तस्करी की घटना ‘पुष्पा’ फिल्म की याद दिला देती है। ट्रैक्टर ट्रॉली में ऊपर से गोबर खाद लादी गई थी और उसके नीचे छिपाई गई थी करीब 100 कुंतल सागौन की लकड़ी।
सूचना पर बेरिया दौलत चौकी इंचार्ज नरेश मेहरा ने अपनी टीम के साथ बैरिकेडिंग कर ट्रैक्टर को रोका। ऊपर से देखने पर ट्रॉली में खाद ही दिखाई दे रही थी, लेकिन जैसे ही गोबर हटाया गया तो नीचे से निकली लाखों रुपये की कीमती लकड़ी। ट्रैक्टर चालक को हिरासत में ले लिया गया है और पूछताछ कर सलाखों के पीछे भेजा दिया है। पुलिस ने ट्रॉली जब्त कर वन विभाग को सौंप दी है। लेकिन असली सवाल ये है – क्या इतनी संगठित तस्करी विभाग के कुछ अधिकारियों की मिलीभगत के बिना संभव है?
यह कोई पहली घटना नहीं है। तराई पूर्वी डिवीजन, हल्द्वानी में इस तरह की घटनाएं अब आम हो गई हैं। कुछ समय पहले इसी क्षेत्र में खैर की बेशकीमती लकड़ी एक गोदाम से बरामद हुई थी, जिसमें लोगों ने सीधे वन विभाग के अधिकारियों पर मिलीभगत के आरोप लगाए थे। उस घटना का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल भी हुआ, जिससे विभाग की जमकर फजीहत हुई। लेकिन विभाग की तरफ से कोई ठोस सफाई या कार्रवाई नहीं की गई।
कुमाऊं के चीफ फॉरेस्ट ऑफिसर धीरज पांडे को तेजतर्रार अधिकारियों में गिना जाता है, लेकिन यह भी एक तथ्य है कि जब से कुमाऊं के जंगलो की सुरक्षा का जिम्मा धीरज पांडे के कंधो पर आया है वो इस जिम्मेदारी का उठाने मे सक्षम नजर नहीं आ रहे है और यही वजह है की कुमाऊं के जंगलों में लकड़ी तस्करी की घटनाएं बढ़ती ही गई हैं। सवाल ये है – क्या वन अधिकारी अब सिर्फ कुर्सी की शोभा बनकर रह गए हैं? क्या उन्हें वह ट्रॉली नहीं दिखती जिसमें अब पेड़ नहीं, बल्कि सिस्टम की लाशें ढोई जा रही हैं?
बेरिया दौलत में पकड़ी गई तस्करी में वन गुर्जरों की भूमिका भी सामने आई है। जो खाद खेतों की मिट्टी को उपजाऊ बनाने का काम करती है, उसी खाद की आड़ में अब तस्करी हो रही है। वन गुर्जरों ने गोबर की खाद को तस्करी के सबसे छुपे हुए हथियार में बदल दिया है। सवाल उठता है कि क्या यह नया तरीका अब वन विभाग की पकड़ से बाहर होता जा रहा है? या वन विभाग के स्थानीये अधिकारीयो आँखों को लकड़ी तस्कर पैसो की गड्डियों से बंद करने मे कामयाब है
अब सबसे बड़ी चुनौती है – गोबर की खाद की आड़ में कितनी सागोंन और खैर की बेसुमार कीमती लकड़ी जंगलो से तस्करी की भेट चढ़ चुकी है? इसका अनुमान वन विभाग के तेजतर्रार अधिकारी कैसे लगायगे और उससे भी बड़ी चुनौती ये है की कुमाऊं मंडल के जंगलों में हजारों की संख्या में वन गुर्जर समुदाय के लोग रहते हैं। लकड़ी तस्करी का यह सिंडिकेट इनमें से कितने वन गुर्जरो को अपने गिरोह में शामिल कर चुका है? यह एक गंभीर जांच का विषय है। लेकिन जब ‘रक्षक ही भक्षक’ बन जाएं, तो निष्पक्ष जांच की उम्मीद भी बेमानी लगती है।
वन संपदा की रक्षा का जिम्मा जिनके कंधों पर है, अगर वही तस्करों के आगे मौन हैं, तो यह मौन कहीं ‘गूंगी सहमति’ तो नहीं? उत्तराखंड का जंगल खतरे में है—और यह खतरा सिर्फ कुल्हाड़ियों या ट्रॉलियों से नहीं, बल्कि वर्दियों और कुर्सियों से भी है।
