उत्तराखंड में ट्रांसफर का खेल जब लिस्ट जारी होती है, तब शुरू होती है ‘दरबारों’ की दौड़!
उत्तराखंड में ट्रांसफर सिर्फ एक आदेश नहीं, बल्कि एक नई ‘जद्दोजहद’ की शुरुआत होती है। जैसे ही किसी विभाग की ट्रांसफर लिस्ट जारी होती है, वैसे ही कुछ अधिकारी और कर्मचारी अपनी कुर्सी बचाने की जुगत में लग जाते हैं। फाइलें चलती नहीं, बल्कि लोग दरवाजे खटखटाने निकल पड़ते हैं कभी सीनियर ऑफिसर के चैम्बर में, तो कभी किसी नेता, मंत्री या रसूखदार की चौखट पर।
सूत्रों की मानें तो हाल ही में स्वास्थ्य विभाग में कुछ डॉक्टरों के ट्रांसफर आदेश जारी हुए, लेकिन इसके बाद शुरू हुआ ‘सेटिंग-वेटिंग’ का खेल। कुछ डॉक्टरों ने अपने ट्रांसफर रुकवाने के लिए ऊपर तक हाजिरी लगाई। कुछ ने खुद को ‘जनहित’ में जरूरी बताया, तो कुछ ने ‘स्थानीय प्रभाव’ का सहारा लिया। यही हाल कुछ महीने पहले फॉरेस्ट विभाग में भी देखा गया था, जब ट्रांसफर के बाद भी अधिकारी फील्ड की जगह ऑफिसों के चक्कर काटते दिखे।
और अब सवाल यही है – ट्रांसफर तो सभी का होता है, लेकिन कुछ लोगों के आदेश रुक कैसे जाते हैं? क्या ये सिर्फ ‘आवश्यकता’ के आधार पर रुकते हैं, या फिर इसके पीछे कोई ‘गांठ’ होती है, जो आसानी से नहीं खुलती?
और बात सिर्फ ट्रांसफर रोकने की नहीं है…
उत्तराखंड एक ऐसा राज्य है जहां मैदान भी हैं और पहाड़ भी। लेकिन कुछ अधिकारी ऐसे हैं जो सालों से सिर्फ मैदानी इलाकों में ही जमे हुए हैं। पहाड़ी क्षेत्रों की पोस्टिंग से जैसे उन्हें एलर्जी हो।
“कुछ लोग तो पहाड़ की चढ़ाई से ही घबरा जाते हैं… और ये डर सिर्फ ऊंचाई का नहीं, ड्यूटी की जिम्मेदारी का भी होता है।”
अगर उत्तराखंड पहाड़ और मैदान दोनों का है, तो फिर ड्यूटी भी दोनों जगह होनी चाहिए। लेकिन जब कोई अधिकारी सिर्फ सुविधाजनक जगहों पर ही तैनात रहता है, तो सवाल उठना लाजिमी है। क्या यह संयोग है, या फिर ‘संपर्क’ और ‘सिफारिश’ का कमाल?
अब देखना ये है कि क्या सरकार इस ट्रांसफर-खेल को पारदर्शिता की पटरी पर ला पाती है या फिर ‘सेटिंग सिस्टम’ यूं ही चलता रहेगा।